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एक बार फिर…चंद शब्द ऐंवे ही

Negative Attitude
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थेंबू से आते थे, पर उन्होंने बचपन से ही देखा था कि कैसे अश्वेतों के साथ अन्याय किया जाता है. भारतीय होने के नाते मुझे यह बहुत विचित्र लगता है कि उन्होंने रोल मॉडल के रूप में महात्मा गांधी जी को नहीं, नेहरु जी को स्वीकार किया। उन्होंने यह भी साफ़ तौर पर कहा था कि अहिंसा को उन्होंने नीति के रूप में स्वीकार किया,सिद्धांत के रूप में नहीं। वैसे हम भारतीय भी भेद को हलके तरीक़े से नहीं देखते ,हमारे यहाँ तो यह विकाशशील होने के ठप्पे के साथ विकास कि राजनीती का आँवला है जिसके फ़ायदे हजार है और रख रखाव पे खर्च न के बराबर। देखिये न कैसा विचित्र संयोग है दुनिया के भेद से लड़ने वाला एक महान नेता का आज निधन और 21 साल पहले आज ही के दिन अयोध्या में एक और ऐतिहासिक भेद का भूमिपूजन किया गया था.भेद क्या है? मेरी नजर में यह एक असुरक्षित मानसिकता है जो हर समय अपना वर्चस्व कायम रखने के फ़िराक़ में लगा रहता है और यही मानसिकता आकर्षित करती है उन सियासी लोगो को जो जनमत के ध्रुवीकरण तलाश रहे होते है और फिर इसी से शुरू हो जाती है उत्थान और पतन का विपणन। जातिवाद का भेद,प्रांतवाद का भेद,भाषा की राजनीती,भीतरी रेखा परमिट से लेकर अभी के समय की बहुचर्चित धारा 370। सियासी लोगों केलिए ये इतना मायने रखता है कि इन सब से हम तमाम भारतीयों को रु ब रु कराने,समझाने के लिए प्रज्ज्वलित टैगलाइन के साथ रैलियों में करोडो फुक देते है और हम बिना कुछ सोच विचार किये उसी चोले में सज बलबूता नहीं तो लात जूता का सूत्र अपना मानवता के शोषण में जी जान से जुट जाते है.जिसे सियासी लोग मुद्दे कहते है असल में वो सामाजिक समस्याएं है और मुद्दों पर तो सियासत हो जाती है परन्तु समस्यायों पर सियासत हो नहीं सकती तो फिर अपनाने कि बारी हो या गोद लेने कि बारी हो समस्यायों को कौन पूछने वाला है,मुद्दे ही अपनी आइटम अच्छी होयेंगी न भाई ! इतिहास साक्षी है,जब मुद्दा एक था तो क्रांतिकारियों कि कतार लगी थी और दुर्भाग्य आज विकास के नाम पर मुद्दो कि तादाद बढ़ी है तो क्रातिकारियों कि आकाल पड़ी है और हो भी क्यों न मुद्दे भी तो किसी न किसी तरह के भेद से संक्रमित हो गए है और इस संक्रमण में पड़ना भी नहीं चाहिए…हमें इसका पक्षधर होने में कोई संकोच नहीं होता। मुद्दो का एकीकरण महत्वपूर्ण है और जब तक मुद्दे वहुवचन से एकवचन नहीं हो जाते जन क्रांति का अलख नहीं जगेगा और ना ही महात्मा गांधी मिलेंगे…ना ही नेल्सन मंडेला…मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है… हम सब भूलने लगे है इस बात को… ऐसा प्रतीत होता है?

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