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संसद- Sine Die

Negative Attitude
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भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जिसके खिलाफ प्रतिक्रिया तो सभी देना चाहते है लेकिन मौका मिले तो इसका सम्पूर्ण आनंद उठाने में लोगो को तानिक भी देर नहीं लगती। ये एक ऐसी सच्चाई है जिसका हर व्यक्ति अनुसरण करना चाहता है,विरोध तो सिर्फ आगे बढ़ने के लिए एफ्रोडीजिआक के तौर पर किया जाता है.इसका उपयोग राजनीती के पॉवर प्ले का पूरा पूरा लाभ उठाने के मकसद हेतु होता है। संसद बिना कोई ठोश काम काज के भ्रष्टाचार के मार से एक बार फिर अनिश्चितकालिन (SINE DIE) पस्त हो गया.विपक्षी पार्टिया अब ये पीठ थपथपा रही है की उनकी इस्तीफे की मांग जायज़ थी,अगर सरकार उनकी मांग मान लेती तो संसद का कार्य नहीं रुकता। बात भ्रष्टाचार या मंत्रियों की इस्तीफे की नहीं है बात तो ये है की इस धमा चौकड़ी का असली मकसद तो यही था की संसद चलने न पाए ताकि सत्ताधारी दल अपनी उपलब्धियों की सूचि में कुछ और पंक्तियाँ जोड़ने में असफल हो। खाद्य सुरक्षा बिल ,भूमि अधिग्रहण बिल जैसे कई अति महत्वपूर्ण बिल पर कोई कार्य नहीं हो सका और आश्चर्य इस बात की है की इसका मलाल लगभग पूरी राजनितिक जमात को नहीं है। ये एक गैर जिम्मेदार लोकतंत्र के संकेत है जहाँ जनता को लेकर पूरा लोकतंत्र ,पूरी राजनितिक जमात इस तरह निश्चिंत है मानो आम जनता के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी बनती ही नहीं है।

अगर आप संसदीय ढांचे और उसके कार्य करने के तरीके को देखे की तो आपको हमारा संसद लगभग 802 (250 राज्य सभा + 552 लोक सभा) सदस्यों वाली एक पार्टनरशिप वाली कंपनी की तरह कार्य करती मालूम पड़ेगी जिसमे कंपनी की शटर की चाभी कुछ गिने चुने व्यक्तियों के पास ही है जो अपने दलगत नफ़ा नुकसान के हिसाब से जब चाहे शटर डाउन कर सकते है। अगर निर्णय इन्ही गिने चुने व्यक्तियों को लेना देना है फिर सांसदों के इतने भारी भरकम हुजूम किस काम का?

विश्व के एक-तिहाई गरीब भारत में हैं, जो रोजाना 1.25 डालर (करीब 65 रुपये) से कम में जीवन-यापन करते हैं। ये क्या इस बात के साक्ष्य
नहीं है की हमारी विशालकाय संसदीय लोकतंत्र आम जनता के प्रति कितनी बेफिक्र है की खाद्य सुरक्षा बिल जैसे अति गंभीर मुद्दे पे बिना कोई चर्चा के संसद का शटर डाउन कर दिया गया। आज अगर शोर है तो सिर्फ और सिर्फ दो मंत्रियों की इस्तीफे की,कब तक विपक्ष+मीडिया के चक्रव्यूह में आम लोगो की समस्याए जमींदोज होती रहेंगी। विपक्ष के लिए तो बस सत्ता के खक्खन के आगे समस्यों को हल करने की गति धीमी रहनी चाहिए ताकि आम जनता के अन्य समस्याओं के लिए राजनीतिज्ञों को ज्यादा जिम्मेदार न माना जा सके और उनके लिए मुद्दे रेडीमेड रूप में दोषारोपण के लिए सदैब उपलब्ध रह सके। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। वजह सिर्फ एक ही था आपसी फुट,आपसी कलह। आज भी हम इसी राह पर चल रहे है पहले आपसी लड़ाइ में किताब का कोई सहारा न था और आज जब इसका सहारा मिला है तो हम इसका उपयोग मात्र सत्ता के लिए कर रहे है पहले इस लड़ाई का उपयोग परदेशी उठाते है और आज घर के ही लोग उठा रहे है, इस अफरा-तफरी,इस बेचैनी,इस उहा पोह से गैर जिम्मेदार वातावरण का निर्माण हो रहा है जो व्यवस्था के हर हिस्से को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है चाहे वो मीडिया हो,व्यापारी वर्ग हो या प्रशासन…सब बीमार हो रहे है!!!

भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वोच्‍च प्रतिनिधि संस्‍था है। इसी माध्‍यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्‍यक्‍ति मिलती है। ‘संसदीय’ शब्‍द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्‍मक राजनीतिक व्‍यवस्‍था है जहां सर्वोच्‍च शक्‍ति लोगों के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे ‘संसद’ कहते हैं। यह वह धुरी है,जो देश के शासन की नींव है। जनता की सर्वोच्‍च प्रतिनिधि संस्‍था होने के नाते इसकी कार्य प्रणाली जिम्मेदार होनी चाहिए जिससे देशहित और आम जनता के उत्थान के लिए कार्य हो सके, ऐसा बिलकुल न हो की दलगत राजनीती और सत्ता प्रेम के लिए जब चाहे संसद का शटर डाउन कर दे। संसद को पार्टनरशिप कंपनी न बनने दे…वन्दे मातरम…

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