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गंतव्य तक पहुचने के लिए लगभग १२ घंटे की यात्रा अभी भी शेष थी…

Negative Attitude
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पिछले कई दिनों से मुंबई में मुंबई वाली मोनसून स्पेशल गुस्सैल वारिश नहीं हो रही थी लेकिन आज मौसम अचानक खुशनुमा हो उठा था। प्रात:से ही रुक-रुक कर गुस्सैल बूंदाबांदी हो रही थी.आकाश काले बादलों से ढका हुआ था.धूप का कहीं नामोनिशान नहीं था.मैं बहुत खुश था.सुहावना और ख़ुशनुमा मौसम मेरी इस ख़ुशी का एक छोटा-सा कारण तो था लेकिन बड़ा और असली कारण कुछ और ही था.आज मुझे आउट ऑफ़ स्टेशन जाना था और मेरी लम्बी वेट लिस्टेड टिकट कन्फर्म हो गयी थी.इस खुशगवार मौसम में कनफर्म्ड टिकट वाली रेल यात्रा,मुझे हर पल रोमांचित कर रहा था.गुस्सैल बूँदाबाँदी और मुंबई लोकल की वावली भीड़ के बावजूद मैं स्टेशन पर समय से पहले पहुँच गया था। स्टेशन पहुचने पर पता चला की हमारी ट्रेन निर्धारित समय से तीस मिनट देर से चल रही है.गाड़ी का लेट होना मेरे अंदर थोडा खीझ पैदा कर रहा था लेकिन फिर मैंने सोचा पता नहीं ट्रेन में खाने का इंतजाम हो या न हो क्यों न कुछ खाने का सामान ले लिया जाये और फिर मैंने कुछ फरसान(बम्बई में नमकीन को फरसान बोली जाती है),फ्रूट्स और पानी का बोत्तल खरीद लिया.अब मैं कुछ निश्चिंत महसूस कर रहा था की चलो भोजन की समस्या फिलहाल तो नहीं होगी. तभी इंडियन रेलवे की कर्कश ध्वनि वाली उद्घोषणा होती है की कुछ ही समय में हमारी ट्रेन आ रही है साथ साथ मेरे मोबाइल पर मेरे अनुज के दूरभाष की ध्वनि  भी बजने लगती है.वही जब भी मैं यात्रा पे निकल रहा होता हूँ, इसे रिवाज़ कहूं या इनका रुटीन मेरी खैरियत का हाल जरूर लेते हैं पर दोस्तों जो भी हो मुझे इनका ये रिवाज अच्छा लगता है.अब मेरी ट्रेन पधार चुकी थी और मैं अपने कन्फर्म सीट पर बैठ कर बहुत सहज महसूस कर रहा था.मेरे सह यात्री एक बुजुर्ग जोड़ा थे.ट्रेन अब प्रस्थान कर चुकी थी.हमलोगों ने एक दुसरे को अपना परिचय दिया.बुजुर्ग यात्रा में परिचय को बड़ा महत्व देते है और अगर इस सूक्ष्म व्यावहारिकता पे गौर फ़रमाया जाए तो आप भी ये स्वीकार करेंगे की इसकी सभ्यता एक दुसरे को करीब लाने में, एक दुसरे के संवाद को प्रोत्साहित करने में बहुत मददगार सिद्ध होती है.अरे भाई लम्बी यात्रा को मूक बनकर जोश-ख़रोश तो नहीं भरा जा सकता ना.अभी परिचय का दौर खत्म भी नहीं हुआ था की अचानक चाय वाले की आंदोलित करने वाला अल्हड आवाज़ सुनाई दी,हमने चाय खरीदी,आंटी ने चाय नहीं ली पर मेरे सहयात्री अंकल ने दविश के साथ मुझे ये कहते हुए पैसे नहीं देने दिया की बेटा मुझे अभी पेंशन मिलती है.मैं थोड़ी देर तक मतलबविहीन हो हतप्रभ रह गया मेरी असहजता को भांपते हुए मेरे सहयात्री अंकल चाय की चुस्कियो को अपनी बुजुर्गियत बख्शीश करते हुए परिचय के सिलसिला को फिर से आगे बढाया.मेरे सहयात्री अंकल रियाज़ खान जी अलीगढ के रहने वाले थे और रसायन शास्त्र के शिक्षक के पद से हाल ही में अवकाश प्राप्त हो आज कल खेती बारी करते है. उनका पुत्र मुंबई में इंजिनियर है और वो हर २-३ साल में अपने बेटे से मिलने मुंबई आया करते है और ये लोग अब वापस अपने गाँव जा रहे थे.मेरे सहयात्री आंटी बहुत उदास सी नज़र आ रही थी, उनको बच्चो से बड़ा लगाव है और यही उनके उदासी का कारण भी था अपने पोते,पोतियों से एक बार फिर बिछड़ गाँव जो वापस जा रहे थे.कई बार अपने पोते,पोतियों का जिक्र करते हुए वो भाव विभ्होर भी हो जाते थे.

आइ.डी कार्ड देखे ही टिकट पे अपना औटोग्राफ दे चलते बने.अब धार्मिक बातों से वृथा बकवाद गीत संगीत पर आ चुकी थी.आकाश अगर काले बादलों से ढके हो तो दिन ढलती कब है और शाम आती कब है पता ही नहीं चलता.जीत और हार से परे इनकी आशिकी की गहराई का अंदाजा सिर्फ वक्त ही लगा सकता है.मेरे सहयात्री अंकल कहने लगे मुझे ना ज्यादा पुराने और ना ही आज कल के गीत पसंद है, मुझे तो वो गीत पसंद है जिसके बोल ह्रदय को छू जाए.मुझे इनका पसंद थोडा कम्प्लेक्स लगा पर फिर भी इतना समझ में आया की इनका मापदंड पुराने और नए गानों का नहीं है.फिर मैंने पूछा आंटी को किस तरह के गीत पसंद है तो अंकल ने चुटकी लेते हुए उत्तर दिया इनको धार्मिक गीत पसंद है.तभी चाय वाले की आंदोलित करनेवाला अल्हड आवाज़ फिर से सुनाई देती है.इस बार आंटी ने भी चाय ली.मैंने पैसे देने की पुरजोर कोशिश की लेकिन उनके हठ के आगे मैं हार गया.एक बार फिर मैं असहज महसूस कर रहा था लेकिन अब मुझे थोडा यकीं हो रहा था की उम्र के अग्रिम होती प्रभुत्व की अवधि में आदमी बुजुर्ग तो होता जरुर है पर साथ साथ हठीला भी.मेरे पिताजी भी ठीक इसी तरह का व्यवहार करते थे.जब भी मैं अपने घर जाता था यही हठ,यही ज़िद्द,यही अटलता,यही मनमानी,क्या कुछ कर दूं, क्या कुछ खिलाऊ. इस यात्रा में न जाने ऐसा क्यों लग रहा था की आज मेरे पिताजी कुछ पल के लिए मेरे साथ फिर मिल गये हो.

रात हो चुकी थी. इस बार पैंट्री कार से रात के भोजन का प्रस्ताव आया,अभी भी वो ज़िद्द पे अड़े थे की पैंट्री कार से खाना आर्डर मत करो परन्तु इस बार मेरे ज़िद्द उनके हठ को एक शर्त पे हरा पाने में कामयाब रहा के उनका अचार जरूर खाना है और एक बार फिर मैं मेरे सहयात्री अंकल,आंटी के साथ खाना खाया.मेरे सहयात्री अंकल,आंटी को सुबह में किसी स्टेशन पर उतर अलीगढ जाना था मतलब इनके साथ का सफर आज रात ही खत्म होने वाला था.१० बजने वाले थे और हमने बिना कोई समय गवाए एक दुसरे को अभिनन्दन कर अपने अपने बर्थ पे सो गए.एक बार फिर सुबह होने का एहसास चाय वाले की आंदोलित करनेवाला अल्हड आवाज़ ने कराया और देखा मेरे सहयात्री अंकल,आंटी सफ़र पूरा कर अपने गंतब्य की ओर जा चुके थे.एक बार फिर से यतीम, अकेला- न हठ,न ज़िद्द,न अटलता,और ना ही मनमानी…..मेरे मन को इन शब्दों के अलावा कुछ और नहीं दिख रहा था चाय अब उतनी उत्तेजक नहीं लग रही जितना की मेरे सहयात्री अंकल,आंटी की मौजूदगी में लग रहा था….मेरी यात्रा अभी पूरी नहीं हुई थी…गंतव्य तक पहुचने के लिए लगभग १२ घंटे की यात्रा अभी भी शेष थी…..

तेरे जिक्र भर ने एहसास कराया की मैं यतीम नहीं
चाँद देख ईद
मनाना तो एक बहाना है
तेरा मकसद तो उत्सव को महोत्सव बनाना है
कहते संत,फकीर ही तेरा आशिक है
इल्तिजा है तेरे बख्शीश ए दीदार,आशिक का तेरे
तेरे जिक्र भर ने एहसास कराया की मैं यतीम नहीं
चाँद देख ईद
मनाना तो एक बहाना है
तेरा मकसद तो उत्सव तो महोत्सव बनाना है


माह-ए-रमजान मुबारक …अल्लाह हाफिज़….:-)

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