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सामाजिक व्यवस्था – शिक्षालय भ्रस्टाचार की?

Negative Attitude
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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,यह कोई नवीन पंक्ति नहीं है. सामाजिक प्राणी होने के नाते हम सब को सामाजिक व्यवस्थाओ के अनुकूल ही जीवन यापन करना होता है,यह भी कोई नवीन पंक्ति नहीं है. सामाजिक व्यवस्था क्या है? क्यों जरुरी है सामाजिक व्यवस्था? आइये आगे चर्चा करने से पहले यह बता दू की व्यवस्था शब्द से मैं क्या समझता हूँ? मेरी समझ में मोटे तौर पे भारतीय सामाजिक व्यवस्था मतलब बातचीत और अन्योन्याश्रित को एकीकृत बनाने के घटकों का एक संयोजन!.और मनुष्य जीवन के श्रेठ होने के सारे ‘संस्कार’ और अंग्रेजी का ‘सेक्रामेंट’ शब्द इसी व्यवस्थाओ के अधीन हैं. वैसे हम सभी जानते है की संस्कार मतलब किसी को संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी भी मनुष्य को विशेष धार्मिक क्रिया-प्रक्रियाओं द्वारा श्रेष्ठ बना देना ही उसका संस्कार है। अब बात है की किसी भी मनुष्य को अपना जीवन श्रेष्ठ बनाना है तो सामाजिक व्यवस्था के आगे घुटने टेकने ही होंगे नहीं तो परिणाम स्वरुप सीधा असामाजिक प्राणी होने का प्रशस्ति पत्र, फिर जीवन क्या और श्रेष्ठ क्या,बस समाज का एक हीन प्राणी. सामाजिक प्राणी मनुष्य की यही श्रेष्ठ होने की पराकाष्टा को हासिल करने के कई हिन्दू संस्कारो में एक संस्कार है विवाह संस्कार.यूँ तो इस संस्कार को हम यज्ञ सा होने का दर्जा देते है और हमारे समाज के पवित्र समारोहों में से एक है. लेकिन असह्या दहेज प्रथा का आतंक इस संस्कार को एक खूंखार,निर्दयी सामाजिक व्यवस्था बना दिया है.और इसी संस्कार के वास्ते शुरू होती है सारी सामाजिक विकृतियाँ जिसमे भ्रस्टाचार,भ्रूण हत्या जैसी गंभीर,विध्वंशकारी एवं बहुचर्चित समस्याये भी शामिल होंती है.आंकड़ो के खेल वाली इस रहस्मयी दुनिया को अगर हम देखे और समझने की कोशिश करे की हमारे अर्थ और स्वार्थ में किस हद तक घनिष्ठता है. भारत सरकार के अनुसार एक भारतीय की औसत वार्षिक आय 60,000 रुपये है.दूसरे शब्दों में यह मतलब निकलता है की प्रत्येक भारतीय औसतन 5,000 रु प्रति माह कमा रहा है.एक मनुष्य अपने जीवन काल में २५-३० वर्ष व्यावसायिक जिंदगी व्यतीत करता है.व्यावसायिक जिंदगी से मेरा मतलब है नौकरी या स्वव्यवसाय से है. मतलब एक भारतीय अपने समस्त जीवन काल में औसत १८ लाख से १९ लाख रूपये कमाता है या कमा सकता है.परन्तु भारत में एक सुसंस्कृत सामाजिक प्राणी को इस यज्ञ सामान पवित्र प्रत्येक विवाह संस्कार के लिए आजकल के विकास एवं आधुनिकता जैसे पुलकित करने वाले शब्दों के दौर में कम से कम ६-८ लाख रूपये खर्च का बोझ आता है. २०११ की जनगणना के अनुसार अभी भी भारत में परिवार का औसत आकार ४-५ के करीब है मतलब बिलकुल स्पष्ट है की प्रत्येक घर में दो सुसंस्कृत प्राणी विवाह संस्कार के लिए योग्य और गृह प्रधान को लगभग १५-१६ लाख रुपये बचत करने की जिम्मेदारी. अब जरा सोचिये पूरी जिंदगी की कमाई १८ लाख से १९ लाख और इसमें से ही १४ लाख से १५ लाख सुसंस्कृत प्राणी को अति सुसंस्कृत करने के लिए बचत भी करनी है.ध्यान रहे इसमें अभी एक सामाजिक प्राणियो के समूह रूपी परिवार के जीवन काल में जीविका पर होने वाले खर्चो को शामिल नहीं किया है.अगर इसको शामिल कर लिया तो बाकी के संस्कार तो दूर,मनुष्य जीवन के आखरी संस्कार के लिए भी अर्थ संचित कर के रखना भी असंभव ज्ञात होता है. यहाँ तो एक ही बात मालूम पड़ती है की समाज ही समाज को गलत होने को मजबूर करता है. १८ लाख से १९ लाख वाली पूरी जिंदगी की कमाई इस भाग्यशाली मनुष्य रुपी एक तन के विवाह संस्कार में ६-८ लाख खर्च के लिए बचत की चिंता तो अपरोक्ष परन्तु स्पष्ट उद्घोषणा करती है की अगर विवाह संस्कार करनी है तो भरी भरकम रकम चाहिए और वो भ्रष्ट हुए वगैर संभव नहीं है.एक पिता के लिए विवाह जो संग्राम जीत लेने जैसा गर्व की अनुभूति है के लिए शुरू होती है हमारे समाज द्वारा समर्थित भ्रस्टाचार अर्थ की और जो इसको वहन नहीं कर सकते या फिर भ्रस्टाचार की एलीट क्लब में शामिल नहीं हो पाते तो भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय एवं जघन्य आपराधिक विकल्प?? हम या हमारा १२२ करोड़ का विशालकाय समाज खुद को परिवर्तित करने के वजाय महज ७००-८०० सांसदों जिनको हमने ही चयनित किया है एवं वे इसी समाज के प्राणी है को सुधारने के लिए धरना, प्रदर्शन,आमरण अनशन इत्यादि लोकतान्त्रिक हथकंडे इख़्तियार कर रहे है जो न सिर्फ आम जन जीवन प्रभावित करता है वल्कि मुल्क के अर्थव्यवस्था पे भी बुरा असर डालता है.कभी कभी तो यूँ लगता है की हमारे देश में जितने भी लोकतान्त्रिक अधिकारों के इस्तेमाल होते है वो सिर्फ एक दुसरे को गुमराह करने के लिए होते है.सामाजिक प्राणी या समाज…सामाजिक प्राणी या समाज को ही गुमराह करता है, भ्रस्टाचार के लिए हमारे सिविल सोसाइटी/बाबाजी का अंग्रेजो भारत छोडो टाइप का आन्दोलन, पेट्रोल के लिए पूरा भारत बंद इस बात के ताजा एवं ज्वलंत उदहारण है. कोई सिविल सोसाइटी,बाबाजी,सामाजिक समूह या संस्थान भ्रस्टाचार,भ्रूण हत्या जैसी गंभीर,विध्वंशकारी समस्याओं की जननी विवाह संस्कार से जुड़े असह्या खर्च वाले मुद्दे को इतनी संजीदगी या गर्मजोशी से आंदोलित नहीं करते या किये है जितना की कालाधन, नेताओ की इमानदारी या पेट्रोल की महंगाई जैसी प्रगतिविहीन मुद्दे को. सच कहे तो समाज ही हमें भ्रष्ट होने के लिए शिक्षित करता है अगर ऐसा नहीं है तो समाज अब तक इन व्यवस्थाओ को सरल बनाने का प्रयास जरूर करता.स्वस्थ समाज की जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति की है और यह सिर्फ परिपक्व सोच से ही संभव हो सकता है नहीं तो असंतुलित लिंग अनुपात जैसे प्राकृतिक आपदा समस्त समाज को नष्ट कर सकती है. पहले हमें यह स्वीकार करनी होगी की भ्रस्टाचार हमारे देश में हरेक घर से शुरू होती तभी हम यह आंकलन कर पाएंगे की इसकी जड़े कितनी गहरी है और इसके लिए करना क्या है?….आज के लिए बस इतना ही….भूल चूक लेनी देनी….आपका दिन सुखमय हो..:-)

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